Monday, July 13, 2009


अब तो मुद्दत हुई कि जाने क्या अरसा हुआ
कहाँ तपिश हुई कि सावन कहाँ बरसा हुआ
अब तो अलस्सुबह रूठ कर रहता है जिन
नसों के दर्द के संग संग बस बढ़ता है दिन

शामियाना खाक हो तो उसका गम नहीं
कुछ तो नजरों में रहे आग का परचम सही
मौजों की उलझन हमेशा जिनकी रहत ही रही
साहिलों तक कौन पहुंचे ऐसी आदत ही नहीं

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