अब तो मुद्दत हुई कि जाने क्या अरसा हुआ
कहाँ तपिश हुई कि सावन कहाँ बरसा हुआ
अब तो अलस्सुबह रूठ कर रहता है जिन
नसों के दर्द के संग संग बस बढ़ता है दिन
शामियाना खाक हो तो उसका गम नहीं
कुछ तो नजरों में रहे आग का परचम सही
मौजों की उलझन हमेशा जिनकी रहत ही रही
साहिलों तक कौन पहुंचे ऐसी आदत ही नहीं
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