Sunday, December 14, 2008

सद्यप्रसवा



सद्यप्रसवा स्त्री


पार्श्व में लिए बैठी है


अपने शिशु को


निढाल पर आश्वस्त


हाथ फिराती है


टटोलती है


अपने ही रक्त और मज्जा से उत्पन्न


नवजात को निहारती है


विचारों और भावनाओं की


केलि से प्रसूत


कृशकाय शरीर को समेटती है


अच्छा लगता है


महीनों तक


गर्भिणी नदी के पाटों


और


भरे हुए बादलों में होनेवाले


प्रकम्पन के भय से


बंध्या की कुंठा से


दोषमुक्त हो


दीवार के उसपार की हलचल पर


ध्यान नहीं देती


मुंह फेर कर


आराम से सो जाती है