सद्यप्रसवा स्त्री
पार्श्व में लिए बैठी है
अपने शिशु को
निढाल पर आश्वस्त
हाथ फिराती है
टटोलती है
अपने ही रक्त और मज्जा से उत्पन्न
नवजात को निहारती है
विचारों और भावनाओं की
केलि से प्रसूत
कृशकाय शरीर को समेटती है
अच्छा लगता है
महीनों तक
गर्भिणी नदी के पाटों
और
भरे हुए बादलों में होनेवाले
प्रकम्पन के भय से
बंध्या की कुंठा से
दोषमुक्त हो
दीवार के उसपार की हलचल पर
ध्यान नहीं देती
मुंह फेर कर
आराम से सो जाती है