Friday, July 31, 2009
मत सोचो कि नीम उजली है तुम्हारी दुनिया
गिरह बंध जाए वो पहेली है तुम्हारी
दुनिया हाथ की छड़ी छूती है जब किनारों
को उतरते ज्वार सी बह जाती है बाकी दुनिया ।
लोग बैठे भी हैं ,नहीं भी मेरी महफ़िल में
उनकी महफ़िल में मैं हूँ कि नहीं सोचो क्यों
ठहर के देखो जिंदगी एक नासूर नहीं
जख्म को फूल में ढल जाने दो खरोंचो
क्यों हवा में यह वजूद जैसे गुमशुदा ख़त हो
काफी देर तक जिसका पता मिले न मिले
ओ़स की बूँद भी समंदर समाये बैठी है
बेवजह बात क्यों कि बाग़ फिर खिले न
खिले न जाने कब तक संभालेंगे वक्त की
किरचें कदम की आहटों में ख़ाक उडेगी कब तक ?
मुझसे पूछो तो सन्नाटे को चीरके रख दे
इस जहाँ के दरो-दीवार पर तुम्हारी दस्तक .
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