Wednesday, July 15, 2009

महानगर की सुबह बौराती है

घड़ी के काँटों पर टंगी बासी कमीज़

सी आँखें चुराती है

फैला है दिन सामने

खालीमैदान सा

बूढेबुजुर्ग सा दिलासा दे जाता है

मन को सहलाता है

शाम को सिकुड़ जाता है

किसी फ्लैट के दालान सा

गठिया की मारी

रात दुखियारी

झरती बूँदें ओढे

दुखते घुटने मोडे

कल की सुबह

जूठे बर्तन सी मुंह बिराती है .

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