Monday, July 27, 2009

आदिम पुत्र

हे आदिम पुत्र !
पर्वतों के विशाल कैनवास पर
श्रम भार से दुहरी पीठ किए
तुम सदा लगे मौन योगी से
कभी अपने ओसारे में धान फैलाते
कभी परिक्रमा में पीपल के
धर्म के सूत्र से बंधते ,
किसी पौराणिक कथा को बांचते ।
कभी लौह खंड सा प्रकाशमान
अग्नि - वीथिका को पिघलाते ।
संस्कारों की मुहर लगाते ,
बलि देने को उठे हाथ
प्रत्यंचा के साथ खिंचा
भ्रू -कुंचित तुम्हारा मुख !
वर्षों दुहराते रहे तुम
धर्म और क्रांति की गाथा ,
कभी शाल्मल - वृक्ष और बांसों की झुरमुट से
आती मांदल की थाप ,
अनबुझ गीत और पावों की थिरकन -
खींच लाती थी तुम्हारे पास ,
पल भर को बाँध ।
उसी एक क्षण
किसी प्रखर प्रकाश तले
अपरिचय के वलय गूँथ जाते थे साथ
लय और गान की आवृत्ति में
जुड़ जाते थे हाथ !
हालांकि तुम हंस पड़ते अक्सर
मेरे पैरों की अनाडी चाप पर ।
हे आदिम पुत्र !
स्वर्ण रेखा की धारा के साथ
करवट बदल ली है कई दशकों ने
लेकिन आज भी
बालों में सफेदी लिए और श्रम भार से झुके
तुम हो वैसे ही ।
कभी दो - चार सालों में
अचानक किसी गली में बोल उठता है
हमारे मुख का मौन स्मित ।
लगता है अभी प्रतिध्वनित होगी मांदल की थाप
बालों में बंधे पंखों की सरसराहट ,
वंश -वन के पीछे से बांसुरी की धुन .
लेकिन सुवर्ण- रेखा की छाती का ताप
कल्लौंछ बन के पसर गया है ।
तभी तो बज उठती है
हर तीज -त्यौहार पर कोई विदेशी धुन
तुम्हारे अपने ही दालान में ।
क्यों न संजो पाई तुम्हारे घर की मिटटी ,
अपनी ही धरोहर ?
बड़े हो गए हैं तुम्हारे बच्चे
पद और मर्यादा में
फिर भी आकाश को चुनौती देते
दैत्य की तरह ये काले पहाड़
मांगते हैं भीख
उसी पुरानी संस्कृति की ।
सुनो आदिम पुत्र !
ढूँढें हम दोनों फिर
उन रहस्यमय धुनों को ,
सुवर्ण रेखा की स्निग्ध धारा में सिक्त _
साथ देंगी ये मांदल की थाप का
आकाश के मौन चंदोवे के नीचे
ये इन पहाडों को मुखर कर देंगी .


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