Friday, July 31, 2009
मत सोचो कि नीम उजली है तुम्हारी दुनिया
गिरह बंध जाए वो पहेली है तुम्हारी
दुनिया हाथ की छड़ी छूती है जब किनारों
को उतरते ज्वार सी बह जाती है बाकी दुनिया ।
लोग बैठे भी हैं ,नहीं भी मेरी महफ़िल में
उनकी महफ़िल में मैं हूँ कि नहीं सोचो क्यों
ठहर के देखो जिंदगी एक नासूर नहीं
जख्म को फूल में ढल जाने दो खरोंचो
क्यों हवा में यह वजूद जैसे गुमशुदा ख़त हो
काफी देर तक जिसका पता मिले न मिले
ओ़स की बूँद भी समंदर समाये बैठी है
बेवजह बात क्यों कि बाग़ फिर खिले न
खिले न जाने कब तक संभालेंगे वक्त की
किरचें कदम की आहटों में ख़ाक उडेगी कब तक ?
मुझसे पूछो तो सन्नाटे को चीरके रख दे
इस जहाँ के दरो-दीवार पर तुम्हारी दस्तक .
Wednesday, July 29, 2009
वे भी क्या दिन थे हम दर्द सुना करते थे
सपनों की आहट को साथ चुना करते थे
अब तो अनकही सब फिजां में ठहर जाती है
होठों से उठती है सीने में ही लहराती है
खुदा तेरी ज़मीं और आसमा का फासला क्यों है
तेरी रहमतों के बीच एक साया छुपा क्यों है
तेरी इस आजमाइश में कोई सजदे में झुक गया
तू उस बन्दे को राहत दे तो उसमें बुरा क्यों है .
Monday, July 27, 2009
आदिम पुत्र
पर्वतों के विशाल कैनवास पर
श्रम भार से दुहरी पीठ किए
तुम सदा लगे मौन योगी से
कभी अपने ओसारे में धान फैलाते
कभी परिक्रमा में पीपल के
धर्म के सूत्र से बंधते ,
किसी पौराणिक कथा को बांचते ।
कभी लौह खंड सा प्रकाशमान
अग्नि - वीथिका को पिघलाते ।
संस्कारों की मुहर लगाते ,
बलि देने को उठे हाथ
प्रत्यंचा के साथ खिंचा
भ्रू -कुंचित तुम्हारा मुख !
वर्षों दुहराते रहे तुम
धर्म और क्रांति की गाथा ,
कभी शाल्मल - वृक्ष और बांसों की झुरमुट से
आती मांदल की थाप ,
अनबुझ गीत और पावों की थिरकन -
खींच लाती थी तुम्हारे पास ,
पल भर को बाँध ।
उसी एक क्षण
किसी प्रखर प्रकाश तले
अपरिचय के वलय गूँथ जाते थे साथ
लय और गान की आवृत्ति में
जुड़ जाते थे हाथ !
हालांकि तुम हंस पड़ते अक्सर
मेरे पैरों की अनाडी चाप पर ।
हे आदिम पुत्र !
स्वर्ण रेखा की धारा के साथ
करवट बदल ली है कई दशकों ने
लेकिन आज भी
बालों में सफेदी लिए और श्रम भार से झुके
तुम हो वैसे ही ।
कभी दो - चार सालों में
अचानक किसी गली में बोल उठता है
हमारे मुख का मौन स्मित ।
लगता है अभी प्रतिध्वनित होगी मांदल की थाप
बालों में बंधे पंखों की सरसराहट ,
वंश -वन के पीछे से बांसुरी की धुन .
लेकिन सुवर्ण- रेखा की छाती का ताप
कल्लौंछ बन के पसर गया है ।
तभी तो बज उठती है
हर तीज -त्यौहार पर कोई विदेशी धुन
तुम्हारे अपने ही दालान में ।
क्यों न संजो पाई तुम्हारे घर की मिटटी ,
अपनी ही धरोहर ?
बड़े हो गए हैं तुम्हारे बच्चे
पद और मर्यादा में
फिर भी आकाश को चुनौती देते
दैत्य की तरह ये काले पहाड़
मांगते हैं भीख
उसी पुरानी संस्कृति की ।
सुनो आदिम पुत्र !
ढूँढें हम दोनों फिर
उन रहस्यमय धुनों को ,
सुवर्ण रेखा की स्निग्ध धारा में सिक्त _
साथ देंगी ये मांदल की थाप का
आकाश के मौन चंदोवे के नीचे
ये इन पहाडों को मुखर कर देंगी .
Wednesday, July 15, 2009
महानगर की सुबह बौराती है
घड़ी के काँटों पर टंगी बासी कमीज़
सी आँखें चुराती है
फैला है दिन सामने
खालीमैदान सा
बूढेबुजुर्ग सा दिलासा दे जाता है
मन को सहलाता है
शाम को सिकुड़ जाता है
किसी फ्लैट के दालान सा
गठिया की मारी
रात दुखियारी
झरती बूँदें ओढे
दुखते घुटने मोडे
कल की सुबह
जूठे बर्तन सी मुंह बिराती है .
Tuesday, July 14, 2009
बरसता दिन है बारिश की नमी है
भीगे फूलों में लिपटी सी जमीन है
चलो इनसे भी कोई बात कर लें
खिड़की के बंद शीशे पार उनके
एक लता छुईमुई सी चुपके चुपके
दस्तक देती है मुलाकात कर लें
यों ही कमरे में हम चुपचाप बैठें
आँखें मूँद कुछ खोये से लेटें
चलें हम आज ख़ुद से बात कर लें
मुद्दतें हो गयीं परियों के किस्से
जो कल तक सब रहे हमारे हिस्से
उन्हें ढूंढे कोई ऐसी रात कर लें
वो जो आसमान पे बैठा है हरुफ बिगाड़ने की साजिश में
कि बाज़ी पलट भी जाती है जरा सी मोहरों कीजुम्बिश में
सफर में उस जगह जायें क्योंकर जहाँ से रात आके मिलती हो
कोई तो मोड़ उस जगह होगा किजहाँ सुबह आके खिलती हो
खुदा के बाजुओं में इन दिनों ताकत कहाँ इतनी
कि धर के हाथ शाने पे हमारे कोई राहत दे
कि हम तो शिद्दत्तों से बारहा सजदे में झुक जाएँ
उससे बन पड़े तो मेरे वीराने को रंगत दे