मैं ने अपनी उधार की जिंदगी
मुट्ठी में भींच ली है
और
खुले आकाश के नीचे
उसे कैनवास की तरह फैला दिया है।
मुट्ठी में भींच ली है
और
खुले आकाश के नीचे
उसे कैनवास की तरह फैला दिया है।
मेरी आँखें जूम लेंस की तरह
स्कैन करती हैं
पेड़ों- पत्तों-शाखों को
कुलेलों को हलचल को ।
किसी गुप्त कोने में
छुप कर मैं हथेली खोलती हूँ -
वहां बंधी है शगुन के रंगों वाली पोटली ।
मैं ढूँढती हूँ उनमें तीन रंग
- नीला , कत्थई और सफ़ेद ।
मेरी आंखों में
फिरोजे का रंग उतर आता है
जो आकाश और समंदर को तलाशता है ।
आज वायु नम है
अस्वाभाविक है यह
पर सूर्य की रोशनी का पता नहीं ।
मुझे प्रतीक्षा है
उसी रोशनी की ।
उसके उगने पर पूरी कायनात बदल जाती है -
बगुलों के सफ़ेद रंग पर
सुनहली पन्नियों का रंग चढ़ जाता है ,
धूप में उड़ती उनकी जमात
ऐसे झिलमिलाती है
जैसे खिड़की खोल कर
किसी बच्चे ने दी हो
सुनहले कागज की पन्नी
कैंची से काट कर
कबूतरों की गर्दन इन्द्रधनुषी बन जाती है
और पीपल के झूमते पत्ते बन जाते हैं
मानिक के झुमके ।
तुम भी तो शायद प्रतीक्षा में हो उसी धूप की ?
तभी रोशनी के बढ़ने तक
छिपे रहते हो किसी पर्ण गह्वर में ।
रोशनी के साथ ही
तुम खुल जाते हो
रंगों की पोटली की तरह ।
अनेक हलचलों के बीच भी
हम दोनों एकस्थ हैं -
समंदर की बिछी काई की ओर देखते
थोडी ही देर में
साफ़ पानी चा जाएगा
धीरे-धीरे उसकी सतह पर
तब
तुम तोलने लगोगे अपने पर ।
और तब मैं
किसी मचान पर बैठे
शिकारी की तरह
भूल जाऊँगी सरे अनावश्यक दस्तक
तमाम वनिक वृत्तियों को
पुराने लिबास की तरह उतार फेकूंगी
तेज़ कर लूंगी
अपनी आत्मा के औसान ,
धूप में झिलमिलाती
उस नीली उड़ान को
शगुन की तरह
कैद कर लूंगी अपने अन्दर ।
No comments:
Post a Comment